(मजहबी) इस्लामिक कट्टरता का परिणाम है अफगानिस्तान

लगभग 20 वर्षों की शांति के बाद आज पुनः अफगानिस्तान मजहबी हिंसा की आग में जल रहा है। इस बार अमेरिका अथवा यूरोपीय संघ का कोई भी देश सहानुभूति के अलावा किसी भी प्रकार की सहायता के लिए सामने नहीं आया। पुनः अफगानिस्तान में वो ही हालात हो गए हैं जो लगभग 2001 से पूर्व में थे। इसमें भी रोचक बात यह है कि अमेरिका और नाटो देश की सेनाए 20 वर्षों के लम्बे संघर्ष के बाद अब शांति वार्ता का बहाना बनाकर इस मुल्क को अपने हाल पर छोड़ कर वापस जा रही है।
वर्तमान में विश्व के समस्त बुद्धिजीवियों के समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न हो गया है कि “क्या अफगानिस्तान इस सदी का दूसरा इराक तो नहीं बनने वाला है ? क्योंकि तालिबान और आईएसआईएस में बहुत ज्यादा फर्क देखने को नहीं मिला है दोनों ही इस्लाम की कट्टरवाद को अपनाकर आम जनता पर जुर्म कर रहे हैं। इसके साथ ही भविष्य भविष्य में किस प्रकार शांति स्थापित की जाए और अफगानिस्तान में पुनः लोकतंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सके।
अपने उत्तर की प्राप्ति के लिए हमें तालिबान के उदय अथवा अस्तित्व में आने के कारणों का विश्लेषण अथवा मंथन करना आवश्यक है अफगानिस्तान में तालिबान के उदय की बात करें तो 1990 की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान के उदय अस्तित्व में आने के कारणों का विश्लेषण अथवा मंथन आवश्यक है अफगानिस्तान में तालिबान की बात करें तो शुरुआत में ना पाकिस्तान में तालिबान का उदय माना जाता है इस दौर में सोवियत सेना अफगानिस्तान से वापस जा रही थी। पश्तून आंदोलन के सहारे तालिबान ने अफगानिस्तान में अपनी जड़ें जमा ली थी।
पाठकों के अंदर पश्तून आंदोलन को लेकर स्वतः जिज्ञासा उत्पन्न होगी तो मैं इस पश्तून आंदोलन की पृष्ठभूमि को भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि 1980 के दशक की बात है अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना आने के बाद कई मुजाहिद्दीन गुट सेना और सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे तब इन मुजाहिदीनो को अमेरिका और पाकिस्तान से मदद मिलती थी, लेकिन 1989 ई. में सोवियत सेना की वापसी के बाद स्थानीय गुट आपस में ही भिडने लगे। ऐसे ही एक स्थानीय गट के नेता मूल्ला मोहम्मद उमर ने कुछ पश्तून युवाओं के साथ आंदोलन शुरू किया, जिसे पश्तो भाषा में ‘तालिबान’ कहा गया | मुल्ला के नेतृत्व में तालिबान लड़ाके तैयार किए जाने लगे। सऊदी अरब तालिबान को आर्थिक मदद देता रहा था । इस प्रकार एक छोटे से कबीले या समूह के आंदोलन में इतना बृहद रूप धारण कर लिया कि एक पूरे मुल्क को ही अपने कब्जे में ले लिया।
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे का परिणाम सबसे ज्यादा एशियाई देशों पर पड़ेगा | इसका प्रमुख कारण यह है कि अफगानिस्तान, एशिया के आर्थिक गलियारे का चौराहा कहा जाता है। हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि पाकिस्तान के द्वारा चीन ने तालिबानी लड़ाकों पर अमेरिकी सैनिकों के विरुद्ध भारी निवेश किया किया है। जिसका कारण चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ परियोजना को काबल की मान्यता प्रदान करवाना था। अगर भारत की बात करें जो एशिया की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है तथा जिसमें पिछले कुछ वर्षों में एशिया में अपने आप को बहुत मजबूती प्रदान की है, अफगानिस्तान पर तालिबान के प्रभाव से काफी नुकसान में रहने वाला है। इसका सीधा-सीधा कारण अफगानिस्तान में भारत का भारी निवेश है। यदि काबुल पर सर्वोच्च शक्ति के रूप में भारत तालिबान को मान्यता प्रदान नहीं करता है तो उसका सारा आर्थिक निवेश नष्ट हो जाएगा। अभी हाल ही में भारत से अफगानिस्तान की संस्कृति को बचाने के लिए अफगानिस्तान के एक ‘प्रेक्षा गृह पर भारी निवेश किया था जिसको तालिबानी लड़ाकों ने नष्ट कर दिया। भारत के हृदय में अफगानिस्तान के लिए प्रेम होने का कारण भारतीय प्रायद्वीप के नक्शे में अफगानिस्तान का सम्मिलित होना है |
हम जानते हैं प्राचीन काल में अफगानिस्तान भारत का अभिन्न अंग रहा है। इतिहासकार जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य का विशाल साम्राज्य उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा तक था । इतिहासकार स्मिथ के अनुसार हिंदू कुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक सीमा थी । इसकी प्रमाणिकता महान सम्राट अशोक के कंधार (गंधार) के समीप शरेकना तथा जलालाबाद के निकट काबुल नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित ‘लघमान से अशोक के अरामेइक लिपि के लेख मिले है। इन अभिलेखों की प्राप्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य साम्राज्य में हिंदू कुश एरिया हेरात) व कंधार तक का क्षेत्र सम्मिलित था
इन्हीं कारणों से जब अफगानिस्तान के प्रताड़ित शर्णार्थियों के लिए सभी देशों व् इस्लामिक मुल्कों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए थे उस समय भारत में सामने आकर अपने नागरिकों के साथ-साथ अफगान नागरिकों को भी शरण देने का कार्य किया तथा समस्त विश्व के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया।
अभी कुछ वर्ष पूर्व कुछ बुद्धिजीवियों को भारत में डर लग रहा था अथवा कुछ अहिशुड़ता का बहाना बनाकर पुरस्कार लौटा रहे थे: अफगानिस्तान से आ रहे शरणार्थी उनके मुंह पर एक तमाचा है | जिस प्रकार भारत ने सर्वे भवंतु सुखिन की संस्कृति का परिचय देते हुए भारतीय नागरिकों और अफगानों के बीच इस मुश्किल घड़ी में फर्क नहीं किया, इसके बावजूद भारत में अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो तालिबान का समर्थन कर रहे हैं उनको यह विचार करना पड़ेगा कि भारत जैसा कोई अन्य देश नहीं है जो उन्हें शरण दे सके तथा वो जिस मजहबी कट्टरता को पाले हुए हैं वह सिर्फ तालिबान की जन्म देता है। अत: इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तालिबान का उदय होना कोई आकस्मिक नहीं था इसके पीछे अनेक कारण उत्तरदाई थे लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अफगानिस्तान की परिस्थितियों का प्रभाव भारत पर भी देखा जायेगा |

लेखक:
जयकरन
(स्वतंत्र विचारक है शिक्षा क्षेत्र में विद्यार्थियों के बीच राष्ट्रवाद को लेकर गतिविधियां करते हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) ब्रज प्रांत (उ.प्र.) प्रांत संगठन मंत्री भी है।)

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