कितना बदल गया इन्सान

पंकज शर्मा
सामाजिक कार्यकर्ता
आज भी याद है बचपन में जब छत पर खुले आसमान के नीचे सोया करते थे तो सुबह सुबह ही चार पाँच बजे के आस पास मन्दिरों में लाउड स्पीकर पर भजन बजना शुरू हो जाते थे। उनमें ही सन 1958 में बनी नास्तिक फिल्म का प्रदीप द्वारा गाया एक भजन बजता था: “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान् कितना बदल गया इंसान” । उस दौर में ज्यादा तो कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन इस भजन में एक रुमानियत थी, दिल को छू जाता था । वो लम्हे अब भी स्मृतियों में कुछ ऐसे बसे हैं कि जैसे चाँद ने लोरी गाके अपने आँचल में पूरी रात हमें सुलाया हो और सुबह होते ही ठंडी हवा ने कान में आवाज़ दे कर जगाया हो। फिर दूर कहीं से आती प्रदीप की इस आवाज ने अबोधपन में ही सही लेकिन आत्मा को अन्दर तक झकझोर दिया हो ।
इसके बाद भी न जाने कितने गाने आये, शायर न जाने क्या क्या इन्सानी जज्बातों और रिश्तों पर लिखते रहे लेकिन अगर आप गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि दरअसल इन्सान नहीं बदला बल्कि हमारे आस पास का परिवेश हर दौर में कुछ ऐसा बदलता गया जिसे कि हम शायद कहते रहे कि इन्सान बदल गया। वक़्त की अपनी चाल है, अपने नियम है। वक़्त में अगर कुछ स्थायी तो है तो वो है बदलाव। पर हम भावनाओं के बोझे के मारे ये ही समझते रहते हैं कि इन्सान बदल गया। कभी कभी दिल में बहुत बोझ भी पाल लेते हैं, अपनी खुशियों की कीमत तक पर।
सुन 1980 से 1992 तक के दौर में लोगों के जीवन में एन्जॉयमेंट से ज्यादा आनन्द था। साइकिल पर चलते थे, सादा कपडे पहनते थे और खाते पीते भी अच्छा थे। उस दौर में सामाजिकता के मायने भी बहुत सार्थक और गहरे थे। बहुत हद तक समाज में सम्मान व्यक्ति से ज्यादा व्यक्तिव का था। किसी के रसूख या पैसे से ज्यादा उस व्यक्ति का सम्मान उसके आदत, स्वभाव, व्यवहार व आचरण की वजह से होता था। हाँ, 1980 से 1990 के बीच में बॉलीवुड थोड़ा उबाऊ हो चुका था। न अच्छे गाने बचे थे न अच्छी मूवीज। इस सबके बावजूद भी जीवन इतना उबाऊ, इतना बासी नहीं था। नहरों के किनारे घने बाग़ होते थे, वहाँ एक हैंडपम्प होता था और उस नल का पानी पी के आत्मा तृप्त हो जाती थी। हवा, पानी, पुराने गाने और इन्सानी रिश्ते, सबमें एक रुमानियत थी, एक अपना पन था।
खैर 90 का दौर आ चुका था। आशिकी, साजन, सड़क जैसी कुछ फिल्मों से बॉलीवुड में फिर से अच्छे म्यूजिक का चलन शुरू हुआ था। गुलशन कुमार कुछ बढ़िया सिंगर्स को ले कर आये थे जैसे कुमार शानू, उदित नारायण , सोनू निगम और अनुराधा पौडवाल। आशिकी तो शायद पहेली और अकेली म्यूजिकल हिट थी। नायक और नायिका में कुछ ख़ास न होने के बावजूद भी लोग ये मूवी केवल उसके म्यूजिक कि वजह से देखने जाते थे। लेकिन उसी दौर में पॉप सांग्स का भी पदार्पण हुआ था और इसी श्रंखला में बाबा सहगल का एक पॉप सांग आया था: “आज मेरी गाडी में बैठ जा, लॉन्ग ड्राइव जायेंगे, फुल स्पीड जायेंगे, कहीं रुकेंगे न हम”। एक साहित्यकार की निगाह से ये बड़ा ही दोयम दर्जे का गाना है, लेकिन जैसा मैंने कहा कि दरअसल इन्सान नहीं बदला बल्कि वक़्त नए परिवेश में ढलता गया तो उस द्रिष्टी से ये गाना भी काफी सार्थक हो जाता है
मेरे आँकलन में वक़्त बदलने की प्रक्रिया में 1992 के आस पास का दौर सबसे अहम था । इस दौर में बहुत कुछ हुआ था। अलीशा चिनॉय, स्वेता शेट्टी जैसे ब्रांड्स पॉप सांग्स की दुनिया में बड़ा नाम बन के उभरे थे, सैटलाइट चॅनेल्स की एंट्री हो रही थी। स्टार प्लस सबसे पहले अंग्रेजी में लांच हुआ थ। इससे थोड़ा पहले ही मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने सामजिक ढाँचे में एक बहुत ही मूलभूत परिवर्तन किया था। फिर मंडल की काट पर कमंडल आया था, बाबरी मस्जिद का ढाँचा ढाह दिया गया था। आर्थिक परिदृश्य में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह का आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हो चुका था । हर्षद मेहता का शेयर मार्किट स्कैम हुआ था। लेकिन हर्षद मेहता की वजह से एक बहुत ही बड़ा परिवर्तन आया था और शायद ये सबसे बड़ा कारण हुआ वक़्त के साथ इन्सान के बदलने का, आम आदमी अब बाजार के अधीन आने वाली निवेश की दुनिया का हिस्सा हो चुका था। इस दौर के घटनाक्रमों कि वजह से धीरे धीरे पैसा बहुत कुछ होने जा रहा था और समाज एक अजीब से संरचना में ढल रहा था। अब हम एक बड़े व वृहद् बाजार के अर्थशास्त्र का हिस्सा हो चुके थे।
यानी समय अपने परिवेश में मार्किट ड्रिवेन इकॉनमी की संरचना को गड रहा था, बड़ी ब्रांड्स अब भारत को एक बड़े उपभोक्ता बाजार की निगाह से देख रहीं थीं। संस्थागत निवेशक भी भारत को इमर्जिंग इकॉनमी की निगाह से देखना शुरू कर चुके थे और एक बड़ा निवेश आना शुरू हो चुका था। लेकिन इस सबके बीच में हर दौर की तरह हम यही कह रहे थे कि इन्सान बदल गया। साहित्य, परिधान, खान पान, सामजिक परम्परायें, मनोरंजन सब कुछ बाजार के नये मानकों में ढल रहा था। विमल, सिया राम और रेमन्डस की जगह एक रफ़ एंड टच नाम की जीन्स की ब्रांड ले रही थी। लेती भी क्यों न, आखिर युवा अक्षय कुमार विज्ञापन में कहते कि रफ़ एंड टफ हो तो रफ़ एंड टफ पहनो। अमिताभ बच्चन तो अब भी त्यौहार के मीठे के नाम पर कैडबरी बेचते हैं। शादियों में बुफे और म्यूजिक पार्टीज का चलन शुरू हो रहा था। अच्छी धुनों पर सस्ते बोल वाले गानों को हम सब दिल से गुनगुना रहे थे। डर, बाजीगर जैसी मूवीज में शाहरुख़ खान अपने बेहतरीन अभिनय से नायक की एक नयी परिभाषा गड रहे थे। क्रिकेट की दुनिया भी डे नाईट मैच, सफ़ेद बाल और खिलाडियों की रंगीन पोषक पर नये अंदाज में निखर रही थी। सचिन तेंदुलकर एक बड़ी ब्रांड बन के उभर रहे थे। FD, RD के अलावा अब शेयर बाजार भी निवेश का एक बड़ा बाजार बन चुका था।
लेकिन अब प्रदीप का गाना कम ही सुनाई देता है, सुबह सुबह हर घर में भाग दौड़ सी ज्यादा दिखने लगी है । छत पर मच्छरों का डेरा हो चुका है, सोने नहीं देते अब । पहले एक काले रंग की चिड़िया दिखती थी अब वो भी नहीं दिखती । ठंडी हवा अब गाहे बगाह ही कान में कुछ कहती है, चाँद तो बस कुछ ऐसे सिमट के रह गया है जैसे बचपन की यादें।
इस सबके बावजूद भी इस सबका एक सकारात्मक पहलु ये है कि अगर बाजार बड़े हैं तो अवसर भी बड़े हैं। बिजली के बिल, रेल रेसेर्वशन्स की लाइन्स अब नहीं दिखतीं। होशियार बच्चे लाखों के पैकेज उठा रहे हैं, सरकारी नौकरियों पर शायद अब वो उतने निर्भर नहीं। लेकिन वक़्त के इस बदले परिवेश में इन्सानी जज्बातों का वजन बहुत कम रह गया है। हमारे परस्पर सामाजिक वार्तालापों व मेल मिलाप ने फेस बुक और व्हाट्सप्प के रूप में एक नये बड़े बाजार की जगह ले ली है।

error: Content is protected !!