पर्यावरण के संरक्षण में मन से जुड़े

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष

डॉ यू एस गौड़
वरिष्ठ चिकित्सक एवं
पर्यावरणविद
,
बात पर्यावरण दिवस की हो और वृक्षारोपण न हो ऐसा नहीं हो सकता ,जब भी पर्यावरण की बात आती है तो लोगों के मस्तिष्क में वृक्ष या जल ही ध्यान में आते है जबकि वास्तव में ये दोनों तो पर्यावरण के मात्र दो घटक है। पर्यावरण की परिभाषा तो बहुत व्यापक है, जिसको हम अनदेखा कर रहे है,पर्यावरणमेंवायु,जल,पृथ्वी,पौधे,पहाड़,गैसे, पक्षी ,जानवर और मनुष्य सभी आते है और इन सभी के संतुलन से जीवन सुचारू चल पाता है , जब भी इनका असंतुलन होता है तो जीवन के लिए संकट उत्पन्न कर देता
है ।
एक ओर वृक्षारोपण ,दूसरी ओर पहाड़ों को कट कर उन पर नवीन रास्तों का निर्माण ,जंगलों को नष्ट कर पिकनिक स्थल,रिसोर्ट, होटल,एवं अन्य प्रकार के निर्माण,पशु पक्षियों के आखेट और कीट पतंगों को कीट नाशकों से नष्ट कर उनकी प्रजातियों को लुप्तता तक पहुंचने के प्रयास, अनियंत्रित जनसंख्या आदि सभी कारण पर्यावरण संरक्षण का मिशन बनाना चहिए क्योंकि प्रकृति का प्रत्येक तत्व एक कड़ी के रूप में दूसरे पर निर्भर हैइसमें से एक कड़ी के टूटने का मतलब पूरी चेन का नष्ट होना तय है।
मानव का यह स्वभाव कि स्वयं को जीवित रखने के लिए प्रकृति में रह रहे अन्य जीवजंतुओं को मार डालें,जल का दोहन करे ,पौधों को नष्ट कर घर बना ले,सड़क बना ले ये सभी कार्य मानव को सभ्य और शिक्षित कहने पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगते है, मनुष्य अगर शिक्षित है तो स्वयं का बचाव करना उस के स्वभाव में होना चाहिए किन्तु इसके लिए अन्य को क्षति पहुंचाने कार्य कदापि नहीं क्योंकि इस जगत में जीवन यापन के लिए परमात्मा ने सभी सुचारू जीवन यापन की व्यवस्थाएं की है।,इस संसार में केवल मनुष्य ही एक ऐसा जीव है कि जिसका पेट भक्ष अभक्ष खाने से भी नहीं भरता , ना ही उसका मन भोग विलास से भरता और ना उसका मन धन दौलत से भरता ।सनातन सभ्यता में प्रकृति के प्रत्येक स्त्रोत को देवता कहा गया है क्योंकि उनके स्वभाव में निरंतर देना है लेना उनके स्वभाव में है ही नहीं! यहां यह सब कहने का मेरा आशय मनुष्य की बुद्धि पर प्रश्न लगाने का नहीं बल्कि उस प्रतिस्पर्धा की ओर ध्यानाकर्षण कराना है जहां हम बिना सोचे विचारे कार्य करने की आदत बना चुके है इस आदत को कौन तोड़ने आयेगा इन उच्च शिक्षितों को कौन समझाएगा ,और जब अति होती है तो प्रकृति स्वयं संतुलन बनाने के लिए उठ खड़ी होती है और आपदाओं के रूप में प्रकट होकर संहार करती है फिर प्रकृति के निर्णय पर विलाप क्यों? जब जीवों में उच्चस्थान रखने वाली प्रजाति मनुष्य ही विलासिता में डूबकर प्रकृति के साथ सभी सीमाएं तोड़कर नष्ट करने पर तुला है फिर प्रकृति किसकी प्रतीक्षा करेगी ?और क्यों करेगी,यह गंभीर और विचारणीय प्रश्न है जिसका उत्तर केवल हम सबके पास की है ।

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